पहले तो सभी को नव वर्ष की शुभकामनाये।
पिछले ३ महीनो में मुझे लगभग ३०० युवाओ का साक्षात्कार करने का मौका मिला। और किस्मत की बात की सभी अभ्यर्थी भारतीय थे। और आयु लगभग २३-३० के बिच। वैसे में भी इसी ग्रुप में आता हु। वास्तव में मुझे अपने लिए एक सहायक की जरुरत थी। जो कि मेरे काम में मेरा हाथ बंटा सके। यकिन मानिये कि ३०० में से एक भी बंद ऐसा नहीं मिला जो कि अपनी मेहनत के दम पर आगे बढ़ने का हौसला रखता हो। सभी अपने नसीब को हथियार बनाकर आ गए थे.किसी में वो दम वो हौसला नहीं कि हाँ मुझे ये पता है और मैं ये कर सकता हूँ। तब मुझे लगने लगा कि शायद मैं गलत युग में पैदा हो गया हूँ, और मुझे अपने भाई पर तरस आने लगा जिसको में हमेशा डांटता रहता हूँ कि मेहनत नहीं करता है, काम ढंग से नहीं करता है। ये शायद उसका नहीं इस पीढ़ी का कसूर है जो इतनी अलसाई हुई है। हर कोई पैसा कमाना चाहता है पर उसके लिए वो शोर्ट कट के चक्कर में लगे हुए है।
कुछ तो ऐसा है जो सही नहीं चल रहा। शायद हमारी व्यवस्था, हमारी परवरिश, हमारे संस्कार। कही न कही मुझे ऐसा लगा कि ये सब बीते दिनों की बाते है। कौन जिम्मेदार है इसके लिए?
आज जब छोटा बच्चा कोई गलती करके बताता है कि उससे गलती हो गयी तो हममे से अधिकतर लोग उसको डांटते है और कही कही तो शायद पिटाई भी हो जाती है। शायद वो फिर कभी गलती करके सच बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाता है। बचपन में बच्चे स्कूल में होते है तो अध्यापक बोलते है कि अभी करलो मेहनत फिर बाद में आराम ही आराम है। कहाँ है आराम? फिर बच्चा स्कूल में कुछ पढता है और घर पर या बाहरी दुनिया में उसे कुछ और ही मिलता है तो सोचता है कि ये सब पढना लिखना शायद पास होने के लिए ही है या शायद ज़िन्दगी की दौड़ में आगे बढ़ने के लिए ही है।व्यावहारिक जीवन में इसका कोई महत्व नहीं है। नैतिक शिक्षा पढाई जाती थी मुझे प्राईमरी स्कूल में। कुछ बाते ऐसी थी जिन्हें में कभी न भुला पाउँगा। पर मैंने आज तक कोई भी ऐसा बंदा नहीं देखा जिसने मेरी पढ़ी हुई बातो का व्यावहारिक जीवन में उपयोग किया हो। और किसी ने किया है तो लोगो ने उसे संत महात्मा मानकर पूजना शुरू कर दिया है। या फिर उसका मजाक बनाकर रख दिया है।
शायद यही सिखाया जाता है शुरू से ही हमे कि दुसरो से आगे बढ़ो। चाहे किसी भी तरीके से बढ़ो पर हमेशा पहला स्थान तुम्हारा होना चाहिए। तभी ये दुनिया तुम्हे पूछेगी। मैं कोई अपवाद नहीं हूँ। मैं भी शामिल हूँ इस दौड़ में। मुझे भी कही ना कही अव्वल रहना अच्छा लगता है। पर में किसी को ये नहीं कहता कि तुम्हे अव्वल रहना है। ज्यादा पैसा कमाना या इकठ्ठा करना ये नहीं दर्शाता कि आप कितने अच्छे इंसान है। पर शायद आज अच्छा इंसान होना महत्वपूर्ण नहीं रह गया है। शायद आज स्वामी विवेकानंद जैसे लोगो कि जरुरत नहीं है दुनिया को। उन्हें शायद मुकेश अम्बानी चाहिए। उन्हें इस चीज से मतलब नहीं है कि आपके विचार कितने शुद्ध है, उन्हें शायद आपके पास कितना बैंक बैलेंस है इस चीज से मतलब है।
देश में आज ४०,००,००,००० युवा है जिनको पॉवर हाउस कह सकते है, पर वो शायद सिक्को कि चमक में रौशनी करने में लगे हुए है, अँधेरे में नहीं। पता नहीं कब वो दिन आएगा जब भारत फिर से जगद्गुरु कहलायेगा।
NAIEM..
पिछले ३ महीनो में मुझे लगभग ३०० युवाओ का साक्षात्कार करने का मौका मिला। और किस्मत की बात की सभी अभ्यर्थी भारतीय थे। और आयु लगभग २३-३० के बिच। वैसे में भी इसी ग्रुप में आता हु। वास्तव में मुझे अपने लिए एक सहायक की जरुरत थी। जो कि मेरे काम में मेरा हाथ बंटा सके। यकिन मानिये कि ३०० में से एक भी बंद ऐसा नहीं मिला जो कि अपनी मेहनत के दम पर आगे बढ़ने का हौसला रखता हो। सभी अपने नसीब को हथियार बनाकर आ गए थे.किसी में वो दम वो हौसला नहीं कि हाँ मुझे ये पता है और मैं ये कर सकता हूँ। तब मुझे लगने लगा कि शायद मैं गलत युग में पैदा हो गया हूँ, और मुझे अपने भाई पर तरस आने लगा जिसको में हमेशा डांटता रहता हूँ कि मेहनत नहीं करता है, काम ढंग से नहीं करता है। ये शायद उसका नहीं इस पीढ़ी का कसूर है जो इतनी अलसाई हुई है। हर कोई पैसा कमाना चाहता है पर उसके लिए वो शोर्ट कट के चक्कर में लगे हुए है।
कुछ तो ऐसा है जो सही नहीं चल रहा। शायद हमारी व्यवस्था, हमारी परवरिश, हमारे संस्कार। कही न कही मुझे ऐसा लगा कि ये सब बीते दिनों की बाते है। कौन जिम्मेदार है इसके लिए?
आज जब छोटा बच्चा कोई गलती करके बताता है कि उससे गलती हो गयी तो हममे से अधिकतर लोग उसको डांटते है और कही कही तो शायद पिटाई भी हो जाती है। शायद वो फिर कभी गलती करके सच बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाता है। बचपन में बच्चे स्कूल में होते है तो अध्यापक बोलते है कि अभी करलो मेहनत फिर बाद में आराम ही आराम है। कहाँ है आराम? फिर बच्चा स्कूल में कुछ पढता है और घर पर या बाहरी दुनिया में उसे कुछ और ही मिलता है तो सोचता है कि ये सब पढना लिखना शायद पास होने के लिए ही है या शायद ज़िन्दगी की दौड़ में आगे बढ़ने के लिए ही है।व्यावहारिक जीवन में इसका कोई महत्व नहीं है। नैतिक शिक्षा पढाई जाती थी मुझे प्राईमरी स्कूल में। कुछ बाते ऐसी थी जिन्हें में कभी न भुला पाउँगा। पर मैंने आज तक कोई भी ऐसा बंदा नहीं देखा जिसने मेरी पढ़ी हुई बातो का व्यावहारिक जीवन में उपयोग किया हो। और किसी ने किया है तो लोगो ने उसे संत महात्मा मानकर पूजना शुरू कर दिया है। या फिर उसका मजाक बनाकर रख दिया है।
शायद यही सिखाया जाता है शुरू से ही हमे कि दुसरो से आगे बढ़ो। चाहे किसी भी तरीके से बढ़ो पर हमेशा पहला स्थान तुम्हारा होना चाहिए। तभी ये दुनिया तुम्हे पूछेगी। मैं कोई अपवाद नहीं हूँ। मैं भी शामिल हूँ इस दौड़ में। मुझे भी कही ना कही अव्वल रहना अच्छा लगता है। पर में किसी को ये नहीं कहता कि तुम्हे अव्वल रहना है। ज्यादा पैसा कमाना या इकठ्ठा करना ये नहीं दर्शाता कि आप कितने अच्छे इंसान है। पर शायद आज अच्छा इंसान होना महत्वपूर्ण नहीं रह गया है। शायद आज स्वामी विवेकानंद जैसे लोगो कि जरुरत नहीं है दुनिया को। उन्हें शायद मुकेश अम्बानी चाहिए। उन्हें इस चीज से मतलब नहीं है कि आपके विचार कितने शुद्ध है, उन्हें शायद आपके पास कितना बैंक बैलेंस है इस चीज से मतलब है।
देश में आज ४०,००,००,००० युवा है जिनको पॉवर हाउस कह सकते है, पर वो शायद सिक्को कि चमक में रौशनी करने में लगे हुए है, अँधेरे में नहीं। पता नहीं कब वो दिन आएगा जब भारत फिर से जगद्गुरु कहलायेगा।
NAIEM..
No comments:
Post a Comment