Wednesday, December 29, 2010

उकाब और अबाबील

एक अबाबील और एक उकाब (गरुड़) पहाड़ी चोटी पर मिले | अबाबील ने कहा, "आपका दिन शुभ
हो, श्रीमान !" और उकाब ने उसकी ओर हिकारत भरी नजरों से देखा और धीमे से कहा, "दिन
शुभ हो |"

और अबाबील ने कहा, "मुझे आशा है कि आपकी जिंदगी में सब ठीक चल रहा
है |"

"हाँ" उकाब ने जवाब दिया "हमारे साथ सब सही चल रहा है | लेकिन क्या
तुम जानते नहीं कि हम चिड़ियों के राजा हैं, और तुम्हें तक तक हमसे मुखातिब नहीं
होना चाहिए जब तक हम खुद तुम्हें इजाज़त न दें ?"

अबाबील ने कहा, "मेरे
ख़याल से हम सब एक ही परिवार से हैं |"

उकाब ने नफरत से उसे देखा और कहा,
"ये तुमसे किसने कहा कि हम और तुम एक ही परिवार से हैं ?"

तभी अबाबील ने
जवाब दिया, "और मैं आपको बता दूँ, कि मैं आपसे कहीं अधिक ऊंचा उड़ सकता हूँ, मैं गा
सकता हूँ तथा दुनिया के बाकी प्राणियों को ख़ुशी दे सकता हूँ | और आप न तो सुकून
देते हैं , न ख़ुशी |"

उकाब को गुस्सा आ गया, और उसने कहा, "सुकून और ख़ुशी
! क्षुद्र अहंकारी जीव | अपनी चोंच के एक हमले से मैं तुम्हारा नामोनिशान मिटा सकता
हूँ | आकार में मेरे पंजों के बराबर भी नहीं हो तुम |"

यह सुनते ही अबाबील
उड़ कर उकाब की पीठ पर बैठ गया | और उसके पंख नोचने लगा | उकाब अब परेशान हो गया
था, और तेज़ी से ऊंची उड़ान भरने लगा ताकि अपनी पीठ पर बैठे अबाबील से छुटकारा पा
सके | लेकिन उसे कोई सफलता नहीं मिली | आख़िरकार, हारकर वह उसी पहाड़ी चोटी की
चट्टान पर गिरकर अपने भाग्य को कोसने लगा | 'क्षुद्र जीव' अभी भी उसकी पीठ पर सवार
था |

उसी समय वहाँ से एक छोटा कछुआ गुजरा, ये दृश्य देखकर वह जोर से हँसा,
और इतनी जोर से हँसा कि दोहरा होकर पीठ के बल गिरते गिरते बचा |

उकाब ने
कछुए की तरफ नीचे देखा और कहा, "जमीन पर रेंग के चलने वाले, तुम्हें किस बात पर
इतनी हँसी आ रही है ?"

और तब कछुए ने जवाब दिया, "मैं देख रहा हूँ कि तुम
घोड़े बन गए हो , और वो छोटी चिड़िया तुम पर सवारी कर रही है, छोटी चिड़िया तुम
दोनों में बेहतर साबित हो रही है |"

ये सुनकर उकाब ने उससे कहा, "जाओ , जाओ
, अपना काम करो | ये मेरे भाई अबाबील और मेरे बीच की बात है | ये हमारे परिवार का
मामला है |"


NAIEM...

Monday, December 27, 2010

घमुलि दीदी यथ-यथ आ यानी सर्दियों के लिए बच्चों के वास्ते एक कोरस



आजकल
कड़ाके की सर्दी पड़ रही है समूचे उत्तर भारत में. जाहिर है आमतौर पर बातचीत में और
टेलीफ़ोन पर भी लगातार सर्दी के इस रूप को लेकर भी सभी से बातें हो रही हैं.


अभी एकाध दिन पहले पिथौरागढ़ ज़िले के गणाई गंगोली के छोटे से गांव रैंतोली
में अपने बचपन की सर्दियां याद करते हुए ’दावानल’ नामक प्रसिद्ध उपन्यास के रचयिता
और ’हिन्दुस्तान’ अख़बार के उत्तर प्रदेश संस्करणों के सम्पादक श्री नवीन जोशी ने एक
दिलचस्प किस्सा सुनाया.

जाड़ों में पहाड़ों में सदा ही अच्छी ख़ासी ठण्ड पड़ती
है. स्कूलों की छुट्टियां होती हैं और बच्चे खेलने बाहर भी नहीं जा सकते. ऐसे मौसम
में नहाने की बात सोचने से बड़ों की भी घिग्घी बंध जाती है, बच्चों की तो बात ही
क्या. तो बच्चे कई कई दिनों तक नहाने से बचे रहते हैं.

ऐसा ही नवीन दा के
बचपन में भी होता था. कई दिनों तक न नहाए बाखली के सारे आठ-दस बच्चों को एकबट्याया
जाता था और ख़ूब सारा पानी गर्म करने के बाद सामूहिक जबरिया स्नान से उन्हें साफ़
बनाया जाता था. यह काम किसी भी बच्चे की मां या बड़ी बहन या मौसी आदि करते
थे.

बाहर धूप आमतौर पर गा़यब रहा करती थी और आसमान में बादल लगे होते थे. इन
सद्यःस्नात बच्चों को और भी ठण्ड लगती थी. इस के लिए उन्होंने एक शानदार तकनीक ईजाद
की थी. वे उछलते हुए मिलकर एक कोरस गाया करते थे जो सर्दी भगाने का गारन्टीड तरीका
हुआ करता था:

"घमुलि दीदी यथ-यथ आ
बादल भीना पर-पर जा
"


धूप माने घाम को दीदी कह कर अपने पास आने का अग्रह किया जाता था जबकि
बादल को भिना यानी जीजा के नाम से सम्बोधित कर दूर दूर रहने को कहा जाता
था.

NAIEM..

Saturday, December 25, 2010

आप मराठी न जानते हों तो भी गुज़ारिश;इसे सुनें ज़रूर !


मराठी
नाट्य परम्परा में संगीत का एक महत्वपूर्ण क़िरदार रहा है. नाटक के कथानक को आगे
बढ़ाने और मोनोटनी को तोड़ने में नाट्य संगीत कड़ी बनता आया है.
किर्लोस्कर नाट्य
कम्पनी के ज़माने से नाटकों में संगीत का सिलसिला बना और उसे बाद में पं.बाल गंधर्व,
पं.दीनानाथ मंगेशकर और सवाई गंधर्व ने सँवारा और समृध्द किया. नाट्य पदों की
भावभूमि हमेशा से शास्त्रीय संगीत के इर्दगिर्द रची गई और गुणी कलाकारों ने इसे तेज़
तान के साथ टप्पे,ठुमरी और छोटे ख़याल के सारे कलेवरों से सजाया. कालांतर में
पं.भीमसेन जोशी,पं.जितेन्द्र अभिषेकी और पं.वसंतराव देशपाण्डे ने इस क्षेत्र में
बहुत ख्याति अर्जित की.

पं.वंसतराव देशपाण्डे जल्दी ही इस
दुनिया से चले गए. उनके गायन एक अजीब कशिश थी और उनका स्वर-विन्यास हमेशा से श्रोता
को एक अलौकिक आनंद की सैर करवाता था. वे एक बेजोड़ तबला वादक और अभिनेता भी
थे.पु.ल.देशपाण्डे,कुमार गंधर्व और पं.देशपाण्डे में बड़ा ज़बरदस्त याराना था. तीनो
के बीच दो चीज़े कॉमन थीं...रसरंजन और बेग़म अख़्तर. हाँ याद आया इन तीनों के एक और
प्यारे दोस्त थे रामूभैया दाते जिन्हें संगीत संसार रसिकराज के रूप में जानता था.
वे अपने घर कई बड़े बड़े गायकों की महफ़िलें करते और शानदार ख़ातिरदारी भी. बेग़म अख़्तर
इन्दौर आएँ और रामू भैया से न मिले ऐसा हो ही नहीं सकता . रामू भैया के बार में
विस्तार से फ़िर कभी

...फ़िलहाल पं.वसंतराव देशपाण्डे के मदमाते और घुमावदार
स्वर में सुनते हैं यह मराठी नाट्य पद ...घे ई छंद मकरंद....ज़रा देखिये तो क्या
बलखाती तानें हैं और स्वरों की लयकारी....कमाल है.


NAIEM..

Wednesday, December 22, 2010

आइये आलसी बनिये



बहुत
दिन हुए सारे कबाड़ी सोए हुए हैं. स्वास्थ्य कारणों से मैं भी कुछ नहीं कर सका.
बिस्तर पए लेटे लेटे 'Idler' पत्रिका के सम्पादक टॉम हॉजकिन्सन की दूसरी ज़बरदस्त
किताब ’How to be idle' समाप्त की. असल में मैंने तो तय किया है कि अब कुछ दिनों तक
इसी किताब को अपनी बाइबिल मान कर चलूंगा. अलार्म घड़ियों, जल्दी उठने की सलाह देने
वाले हितैषियों, दुनिया में सफल होने के गुर बताने वालों को टैम्प्रेरी गुडबाई कहता
मैं इस किताब से एकाध टुकड़े पेश करता हूं


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हमें कोशिश करनी
चाहिये कि हम हर काम को आलसीपन के साथ करें, सिवा पीने और प्यार करने में, सिवा
आलसी होने में.

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शहरों में रहने वाले सम्भ्रान्त लोगों ने कविता को
बार बार त्यागा है क्योंकि उन्हें लगता है उनाके पास इस तरह की फ़िज़ूल चीज़ों के
वास्ते बर्बाद करने को समय नहीं है. लेकिन एक कविता को थोड़े मिनटों में पढ़ा जा सकता
है और उसके बड़े शानदार प्रभाव होते हैं. सुबह के दस बजे बिस्तर में लेटे आलसी आदमी
के पास ऐसा करने का समय होता है.

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सच्चा आलसी आदमी सिर्फ़ शनिवार को ही
नहीं, हर समय अच्छा जीवन बिताना चाहता है. समय का आनन्द लिया जाना चाहिए बजाय कि आप
हर समय उससे लड़ते रहें



NAIEM...

Monday, December 20, 2010

गुलदस्ता उसके आगे हंस हंस बसन्त लाई



नज़ीर
अकबराबादी साहेब की बसन्त सीरीज़ से पढ़िये एक और बेमिसाल नज़्म

मिलकर सनम से
अपने हंगाम दिलकुशाई
हंसकर कहा ये हमने ए जां! बसन्त आई
सुनते ही उस परी ने
गुल गुल शगुफ़्ता हो कर
पोशाक ज़रफ़िशानी अपनी वोही रंगाई
जब रंग के आई उसकी
पोशाक पुर नज़ाकत
एक पंखुड़ी उठाकर नाज़ुक सी उंगलियों में
रंगत फिर उसकी अपनी
पोशाक से मिलाई
जिस दम किया मुक़ाबिल कसवत से अपने उसको
देखा तो उसकी रंगत उस
पर हुई सवाई
फिर तो बसद मुसर्रत और सौ नज़ाकतों से
नाज़ुक बदन पे अपने पोशाक वह
खपाई
चम्पे का इत्र मल के मोती से फिर खुशी हो
सीमी कलाइयों में डाले कड़े
तिलाई
बन ठन के इस तरह से फिर राह ली चमन की
देखी बहार गुलशन बहरे तरब
फ़िज़ाई
जिस जिस रविश के ऊपर आकर हुआ नुमायां
किस किस रविश से अपनी आनो अदा
दिखाई
क्या क्या बयां हो जैसे चमकी चमन चमन में
वह ज़र्द पोशी उसकी वह तर्ज़े
दिलरुबाई
सदबर्ग ने सिफ़त की नरगिस से बेतअम्मुल
लिखने को वस्फ़ उसका अपनी कलम
उठाई
फिए सहन में चमन के आया बहुस्नो ख़ूबी
और तरफ़ा तर बसन्ती एक अंजुमन
बनाई
उस अन्जुमन में बैठा जब नाज़ो तमकनत से
गुलदस्ता उसके आगे हंस हंस बसन्त
लाई
की मुतरिबों ने ख़ुश ख़ुश आग़ाज़े नग़्मा साज़ी
साक़ी ने जामे ज़र्रीं भर भर के
मै पिलाई

देख उसको और महफ़िल उसकी ’नज़ीर’ हरदम
क्या-क्या बसन्त आकर उस
वक़्त जगमगाई..


NAIEM...

Friday, December 17, 2010

बैठो चमन में नरगिसो सदबर्ग की तरफ़ - नज़ीर अकबराबादी



निकले
हो किस बहार से तुम ज़र्द पोश हो
जिसकी नवेद पहुंची है रंगे बसन्त को
दी बर में अब लिबास बसन्ती को जैसे जा
ऐसे ही तुम हमारे सीने से आ लगो
गर हम नशे
में "बोसा’ कहें दो तो लुत्फ़ से
तुम पास हमारे मुंह को लाके हंस के कहो
"लो"
बैठो चमन में नरगिसो सदबर्ग की तरफ़
नज़्ज़ारा करके ऐशो मुसर्रत की दाद
को
सुनकर बसन्त मुतरिब ज़र्री लिबास से
भर भर के जाम फिर मये गुल रंग के
पियो
कुछ कुमरियों के नग़्मे को दो सामये में राह
कुछ बुलबुलों का ज़मज़मा ए
दिलकुशा सुनो

मतलब है ये नज़ीर का यूं देखकर बसन्त
हो तुम भी शाद दिल को
हमारे भी ख़ुश करो...


NAIEM...

Monday, November 15, 2010

दिल देखते ही हो गया शैदा बसन्त का - नज़ीर अकबराबादी

नज़ीर अकबराबादी साहेब की बसन्त सीरीज़ जारी


जोशे
निशात ओ ऐश है हर जा बसन्त का
हर तरफ़ा रोज़गारे तरब जा बसन्त का
बाग़ों में
लुत्फ़ नश्वोनुमा की हैं कसरतें
बज़्मों में नग़्मा ख़ुशदिली अफ़्जा बसन्त
का
फिरते हैं कर लिबास बसन्ती वो दिलबरां
है जिनसे ज़ेर निगार सरापा बसन्त
का
जा दर पे यार के ये कहा हमने सुबह दम
ऐ जान है अब तो कहीं चर्चा बसन्त
का
तशरीफ़ तुम न लाए जो करके बसन्ती पोश
कहिये गुनाह हमने क्या किया बसन्त
का
सुनते ही इस बहार से निकला कि जिसके तईं
दिल देखते ही हो गया शैदा बसन्त
का

अपना वो ख़ुश लिबास बसन्ती दिखा ’नज़ीर’
चमकाया हुस्ने यार ने
क्या-क्या बसन्त का..


NAIEM...

Friday, November 12, 2010

तुम कनक किरन - जयशंकर प्रसाद


आज
से ठीक एक सौ इक्कीस साल पहले यानी ३० जनवरी १८८९ को ’कामायनी’ जैसी कालजयी रचना
करने वाले महाकवि जयशंकर प्रसाद का जन्म हुआ था.

सो इस अवसर पर पढ़िये उनकी
एक कविता जो स्कूल के ज़माने में मैंने अपनी डायरी में लिख रखी थी:


तुम
कनक किरन के अंतराल में
लुक छिप कर चलते हो क्यों?

नत मस्तक गवर् वहन
करते
यौवन के घन रस कन झरते
हे लाज भरे सौंदर्य बता दो
मौन बने रहते हो
क्यो?

अधरों के मधुर कगारों में
कल कल ध्वनि की गुंजारों में
मधु
सरिता सी यह हंसी तरल
अपनी पीते रहते हो क्यों?

बेला विभ्रम की बीत
चली
रजनीगंधा की कली खिली
अब सांध्य मलय आकुलित दुकूल
कलित हो यों छिपते
हो क्यों?


NAIEM.....

Wednesday, November 10, 2010

बचपन की बोरियत सपनों से भरी बोरियत होती है



एक
साक्षात्कार में विख्यात इतालवी उपन्यासकार इतालो काल्वीनो से पूछा गया
"क्या आप कभी बोर हुए हैं?"

इतालो का जवाब था: " हां, बचपन में. लेकिन मैं
यहा पर बताना चाहूंगा कि बचपन की बोरियत एक खास तरह की बोरियत होती है. वह सपनों से
भरी बोरियत होती है जो आपको किसी दूसरी जगह किसी दूसरी वास्तविकता में प्रक्षेपित
कर देती है. वयस्क जीवन की बोरियत किसी काम को बार-बार किये जाने की वजह से पैदा
होती है - यह किसी ऐसी चीज़ में लगे रहने से होती है जिस से अब आप किसी अचरज की
उम्मीद नहीं करते. और मैं ... मेरे पास कहां से समय होगा बोरियत के लिए! मुझे सिर्फ़
डर लगता है कि कहीं मैं अपनी किताबों में अपने को दोहराने न लगूं. यही वजह है कि जब
जब मेरे सामने कोई चुनौती होती है, मुझे कुछ ऐसा खोजने में लग जाना होता है जो इतना
नई हो कि मेरी अपनी क्षमता से भी थोड़ा आगे की चीज़ हो."


NAIEM..

Monday, November 8, 2010

एक उस्ताद क्या कहता है दूसरे उस्ताद के लेखन पर ...



"...
हेमिंग्वे का सारा
काम यह दिखलाता है कि उसकी आत्मा चमकदार तो थी मगर उसका जीवन बहुत संक्षिप्त रहा.
यह बात समझ में आती भी है. उसके भीतर का तनाव और लेखन की वैसी मज़बूत तकनीक - इन
दोनों को उपन्यास की विशाल और जोखिमभरी ज़मीन पर लम्बे समय तक बनाए नहीं रखा जा सकता
था. ऐसा उसका स्वभाव था और उसकी गलती यह थी कि उसने अपनी ही आलीशान हदों को पार
करने का प्रयास किया. और यह इसी वजह से है कि तमाम सतही चीज़ें किसी भी और लेखक से
कहीं ज़्यादा उसके लेखन में देखी जाती हैं. इसके बरअक्स उसकी कहानियों के साथ सबसे
अच्छी बात यह है कि उन्हें पढ़कर लगता है कि कहीं किसी चीज़ की कमी है और यह चीज़
उन्हें खूबसूरत और रहस्यमय बनाती है. हमारे समय के एक और महान लेखक बोर्हेस के साथ
भी यही बात है पर उसे इस बात का भान रहता है कि अपनी सीमाओं के पार न जाया जाए.


फ़्रान्सिस मैकोम्बर द्वारा शेर पर चलाई गई इकलौती गोली शिकार के नियमों के
बारे में तो बहुत कुछ बताती ही है, लेखन के विज्ञान का सार भी उसमें निहित है. अपनी
एक कहानी में हैमिंग्वे ने लिखा था कि लीरिया का एक सांड एक बुलफ़ाइटर के सीने से
रगड़ खा कर लौटता हुआ "कोने पर मुड़ रही किसी बिल्ली" जैसा लगा. पूरे सम्मान के साथ
मैं कहता हूं कि इस तरह का ऑब्ज़र्वेशन उन इन्स्पायर्ड मूर्खताओं से भरे टुकड़ों में
गिना जा सकता है जो सिर्फ़ शानदार लेखकों के यहां पाये जाते हैं. हेमिंग्वे का सारा
काम ऐसे ही सादा और चौंधिया देने वाली खोजों से भरा पड़ा है जो दर्शाते हैं किस
बिन्दु पर उसने अपने गद्य की परिभाषा गढ़ी.

निस्संदेह अपनी तकनीक को लेकर
इतना सचेत रहना ही इकलौता कारण है कि हेमिंग्वे को अपने उपन्यासों नहीं बल्कि
कहानियों की वजह से महान माना जाएगा. ... व्यक्तिगत रूप से मुझे उसकी एक कम चर्चित
छोटी कहानी 'कैट इन द रेन' सबसे महत्वपूर्ण लगती है. ..."

NAIEM.

Friday, November 5, 2010

आर्थिक विकास आगे-आगे गरीबी पीछे-पीछे

आजादी के बाद भारत ने बहुत तेजी से विकास किया है। आर्थिक, सामाजिक और तकनीकी रूप से जो विकास दर भारत ने हासिल किया है वो किसी को भी हैरत में डाल सकता है। बावजूद इसके ये भी एक सच्चाई है कि भारत में केवल आठ राज्यों में ही गरीबों की संख्या अफ्रीका के २६ गरीब देशों की आबादी से भी ज्यादा है। है ना ये आंकड़े चौकाने वाले। विकास का दावा करने वाले हर भारतीय के लिये ये शर्म की बात हो सकती है कि इतना विकास करने के बावजूद गरीबी मिटाने के मामले में भारत आज भी पिछे है। गरीबी का ये आंकड़ा निश्चित तौर पर भारत की दयनीय स्थिति को दर्शाता है। लेकिन गरीबी सिर्फ भारत की चिंता नहीं हो सकती। ये पूरे एशिया महाद्वीप के लिए गंभीर चिंता का विषय है। लगभग आधी आबादी को ठीक से भोजन नसीब नहीं हो रहा। रहन-सहन का स्तर आज भी नीचे है। सरकार के पास इतने पैसे नहीं है कि वो अपने नागरिकों की लाइफ स्टाइल को सुधारने के लिए उनपर खर्च कर सके। एक अच्छी खासी आबादी बीमारी के चलते काल के मुंह में समा जाती है। उन्हें उचित इलाज सुलभ नहीं हो पाता। दूरस्थ इलाकों में बिजली, पानी और चिकित्सा जैसी बुनियादी सुविधाएं आज भी नदारद हैं। ऐसे में आप कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि भारत विकास के पथ पर तेजी से दौड़ रहा है। हां विकास हो रहा है लेकिन ये विकास शहरों तक ही सीमित है। गांव आज भी विकास की रोशनी से दूर हैं। जबकि ये सच्चाई है कि भारत की ज्यादातर आबादी गांवों में बसती है। भारत गांवों का देश है और यही वजह है कि जब विकास की बात आती है तो गांवों के आंकड़े भारत के सारे दावों की पोल खोल देते हैं। सिर्फ शहरी विकास के नाम पर भारत तरक्की की बात नहीं कर सकता। गरीबी के खेल में बिहार, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, झारखंड, उड़ीसा और राजस्थान सबसे आगे हैं। इन्होंने गरीबी मिटाने में जो लापरवाही बरती है उसका खामियाजा भारत को भुगतना पड़ रहा है। इन राज्यों की राजनीतिक और सामाजिक स्थिति ने विकास की चौपट करने में अहम भूमिका निभाई है। कोई इंसान कितना गरीब है यह उसके निजी आय के साथ इस बात पर भी निर्भर करता है कि सरकार ने उसके आसपास सुविधाओं को लेकर क्या इंतजाम किए हैं और आय के कितने साधन उपलब्ध करवाए हैं। भारत के इन आठ राज्यों पर नजर डाली जाए तो एक बात तो साफ है कि सरकार विकास को लेकर जिस तरह से उदासीन रही है उससे यही अंदाजा लगाया जा सकता है कि भूख और बेकारी को लेकर नजरिया कुछ और ही है। सरकार की नजर में गरीबी कोई गंभीर चिंतनीय विषय नहीं है। एजुकेशन, स्वास्थ्य, आवास, पोषण, संसाधन और बुनियादी सुविधाएं सेकेंडरी चीजें हैं। जिंदगी जीने का जो ट्रेंड इन राज्यों में पहले से चला आ रहा है उसमें सुधार की कोई जरूरत सरकार को नजर नहीं आती। वैसे देखा जाए तो साउथ एशिया में ५१ फीसदी लोग गरीब हैं, जबकि २८ फीसदी लोग अफ्रीका में गरीब हैं। इन आंकड़ों की बाजीगरी पर नजर डाले तो एक बात तो साफ है कि भारत में गरीबी की जो तस्वीर है वो उतनी भयानक नहीं है। हां भूख जरूर है, बच्चों में कुपोषण का आंकड़ा करीब पचास फीसदी है। इस पर कैसे काबू पाया जा सकता है ये बहुत बड़ी समस्या है। इसका समाधान खोजा जाना चाहिए। भारत आर्थिक तौर पर बहुत तेजी से विकास कर रहा है, लेकिन भूख को मिटाने में कितना कामयाब हो पाया है इस पर तस्वीर साफ नहीं हो पाई है। संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले दो सालों में साउथ एशिया में भूख को कम करने में कोई सफलता नहीं मिली है। भारत में आज भी भूख से मौतें हो रही हैं। कुपोषण की समस्या बनी हुई है। ऐेसे में ये बहुत बड़ा सवाल है कि आर्थिक विकास और गरीबी में क्या रिश्ता है। बात वहीं आकर रुकती है कि आखिर आर्थिक विकास हो रहा है तो कहां हो रहा है। जाहिर सी बात है ये बात शहरों से निकली है और शहरों में ही जाकर खत्म हो जाती है। चाहे एजुकेशन हो, हेल्थ हो या फिर रोजगार के अवसर, सारी सुविधाएं सिर्फ और सिर्फ शहरों में ही विकसित हो रही हैं। अब ये सारी सुविधाएं कब तक गांवों में पहुंचेंगी, फिलहाल ये कोई नहीं जानता, सरकार भी नहीं.....

NAIEM