Monday, November 15, 2010

दिल देखते ही हो गया शैदा बसन्त का - नज़ीर अकबराबादी

नज़ीर अकबराबादी साहेब की बसन्त सीरीज़ जारी


जोशे
निशात ओ ऐश है हर जा बसन्त का
हर तरफ़ा रोज़गारे तरब जा बसन्त का
बाग़ों में
लुत्फ़ नश्वोनुमा की हैं कसरतें
बज़्मों में नग़्मा ख़ुशदिली अफ़्जा बसन्त
का
फिरते हैं कर लिबास बसन्ती वो दिलबरां
है जिनसे ज़ेर निगार सरापा बसन्त
का
जा दर पे यार के ये कहा हमने सुबह दम
ऐ जान है अब तो कहीं चर्चा बसन्त
का
तशरीफ़ तुम न लाए जो करके बसन्ती पोश
कहिये गुनाह हमने क्या किया बसन्त
का
सुनते ही इस बहार से निकला कि जिसके तईं
दिल देखते ही हो गया शैदा बसन्त
का

अपना वो ख़ुश लिबास बसन्ती दिखा ’नज़ीर’
चमकाया हुस्ने यार ने
क्या-क्या बसन्त का..


NAIEM...

Friday, November 12, 2010

तुम कनक किरन - जयशंकर प्रसाद


आज
से ठीक एक सौ इक्कीस साल पहले यानी ३० जनवरी १८८९ को ’कामायनी’ जैसी कालजयी रचना
करने वाले महाकवि जयशंकर प्रसाद का जन्म हुआ था.

सो इस अवसर पर पढ़िये उनकी
एक कविता जो स्कूल के ज़माने में मैंने अपनी डायरी में लिख रखी थी:


तुम
कनक किरन के अंतराल में
लुक छिप कर चलते हो क्यों?

नत मस्तक गवर् वहन
करते
यौवन के घन रस कन झरते
हे लाज भरे सौंदर्य बता दो
मौन बने रहते हो
क्यो?

अधरों के मधुर कगारों में
कल कल ध्वनि की गुंजारों में
मधु
सरिता सी यह हंसी तरल
अपनी पीते रहते हो क्यों?

बेला विभ्रम की बीत
चली
रजनीगंधा की कली खिली
अब सांध्य मलय आकुलित दुकूल
कलित हो यों छिपते
हो क्यों?


NAIEM.....

Wednesday, November 10, 2010

बचपन की बोरियत सपनों से भरी बोरियत होती है



एक
साक्षात्कार में विख्यात इतालवी उपन्यासकार इतालो काल्वीनो से पूछा गया
"क्या आप कभी बोर हुए हैं?"

इतालो का जवाब था: " हां, बचपन में. लेकिन मैं
यहा पर बताना चाहूंगा कि बचपन की बोरियत एक खास तरह की बोरियत होती है. वह सपनों से
भरी बोरियत होती है जो आपको किसी दूसरी जगह किसी दूसरी वास्तविकता में प्रक्षेपित
कर देती है. वयस्क जीवन की बोरियत किसी काम को बार-बार किये जाने की वजह से पैदा
होती है - यह किसी ऐसी चीज़ में लगे रहने से होती है जिस से अब आप किसी अचरज की
उम्मीद नहीं करते. और मैं ... मेरे पास कहां से समय होगा बोरियत के लिए! मुझे सिर्फ़
डर लगता है कि कहीं मैं अपनी किताबों में अपने को दोहराने न लगूं. यही वजह है कि जब
जब मेरे सामने कोई चुनौती होती है, मुझे कुछ ऐसा खोजने में लग जाना होता है जो इतना
नई हो कि मेरी अपनी क्षमता से भी थोड़ा आगे की चीज़ हो."


NAIEM..

Monday, November 8, 2010

एक उस्ताद क्या कहता है दूसरे उस्ताद के लेखन पर ...



"...
हेमिंग्वे का सारा
काम यह दिखलाता है कि उसकी आत्मा चमकदार तो थी मगर उसका जीवन बहुत संक्षिप्त रहा.
यह बात समझ में आती भी है. उसके भीतर का तनाव और लेखन की वैसी मज़बूत तकनीक - इन
दोनों को उपन्यास की विशाल और जोखिमभरी ज़मीन पर लम्बे समय तक बनाए नहीं रखा जा सकता
था. ऐसा उसका स्वभाव था और उसकी गलती यह थी कि उसने अपनी ही आलीशान हदों को पार
करने का प्रयास किया. और यह इसी वजह से है कि तमाम सतही चीज़ें किसी भी और लेखक से
कहीं ज़्यादा उसके लेखन में देखी जाती हैं. इसके बरअक्स उसकी कहानियों के साथ सबसे
अच्छी बात यह है कि उन्हें पढ़कर लगता है कि कहीं किसी चीज़ की कमी है और यह चीज़
उन्हें खूबसूरत और रहस्यमय बनाती है. हमारे समय के एक और महान लेखक बोर्हेस के साथ
भी यही बात है पर उसे इस बात का भान रहता है कि अपनी सीमाओं के पार न जाया जाए.


फ़्रान्सिस मैकोम्बर द्वारा शेर पर चलाई गई इकलौती गोली शिकार के नियमों के
बारे में तो बहुत कुछ बताती ही है, लेखन के विज्ञान का सार भी उसमें निहित है. अपनी
एक कहानी में हैमिंग्वे ने लिखा था कि लीरिया का एक सांड एक बुलफ़ाइटर के सीने से
रगड़ खा कर लौटता हुआ "कोने पर मुड़ रही किसी बिल्ली" जैसा लगा. पूरे सम्मान के साथ
मैं कहता हूं कि इस तरह का ऑब्ज़र्वेशन उन इन्स्पायर्ड मूर्खताओं से भरे टुकड़ों में
गिना जा सकता है जो सिर्फ़ शानदार लेखकों के यहां पाये जाते हैं. हेमिंग्वे का सारा
काम ऐसे ही सादा और चौंधिया देने वाली खोजों से भरा पड़ा है जो दर्शाते हैं किस
बिन्दु पर उसने अपने गद्य की परिभाषा गढ़ी.

निस्संदेह अपनी तकनीक को लेकर
इतना सचेत रहना ही इकलौता कारण है कि हेमिंग्वे को अपने उपन्यासों नहीं बल्कि
कहानियों की वजह से महान माना जाएगा. ... व्यक्तिगत रूप से मुझे उसकी एक कम चर्चित
छोटी कहानी 'कैट इन द रेन' सबसे महत्वपूर्ण लगती है. ..."

NAIEM.

Friday, November 5, 2010

आर्थिक विकास आगे-आगे गरीबी पीछे-पीछे

आजादी के बाद भारत ने बहुत तेजी से विकास किया है। आर्थिक, सामाजिक और तकनीकी रूप से जो विकास दर भारत ने हासिल किया है वो किसी को भी हैरत में डाल सकता है। बावजूद इसके ये भी एक सच्चाई है कि भारत में केवल आठ राज्यों में ही गरीबों की संख्या अफ्रीका के २६ गरीब देशों की आबादी से भी ज्यादा है। है ना ये आंकड़े चौकाने वाले। विकास का दावा करने वाले हर भारतीय के लिये ये शर्म की बात हो सकती है कि इतना विकास करने के बावजूद गरीबी मिटाने के मामले में भारत आज भी पिछे है। गरीबी का ये आंकड़ा निश्चित तौर पर भारत की दयनीय स्थिति को दर्शाता है। लेकिन गरीबी सिर्फ भारत की चिंता नहीं हो सकती। ये पूरे एशिया महाद्वीप के लिए गंभीर चिंता का विषय है। लगभग आधी आबादी को ठीक से भोजन नसीब नहीं हो रहा। रहन-सहन का स्तर आज भी नीचे है। सरकार के पास इतने पैसे नहीं है कि वो अपने नागरिकों की लाइफ स्टाइल को सुधारने के लिए उनपर खर्च कर सके। एक अच्छी खासी आबादी बीमारी के चलते काल के मुंह में समा जाती है। उन्हें उचित इलाज सुलभ नहीं हो पाता। दूरस्थ इलाकों में बिजली, पानी और चिकित्सा जैसी बुनियादी सुविधाएं आज भी नदारद हैं। ऐसे में आप कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि भारत विकास के पथ पर तेजी से दौड़ रहा है। हां विकास हो रहा है लेकिन ये विकास शहरों तक ही सीमित है। गांव आज भी विकास की रोशनी से दूर हैं। जबकि ये सच्चाई है कि भारत की ज्यादातर आबादी गांवों में बसती है। भारत गांवों का देश है और यही वजह है कि जब विकास की बात आती है तो गांवों के आंकड़े भारत के सारे दावों की पोल खोल देते हैं। सिर्फ शहरी विकास के नाम पर भारत तरक्की की बात नहीं कर सकता। गरीबी के खेल में बिहार, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, झारखंड, उड़ीसा और राजस्थान सबसे आगे हैं। इन्होंने गरीबी मिटाने में जो लापरवाही बरती है उसका खामियाजा भारत को भुगतना पड़ रहा है। इन राज्यों की राजनीतिक और सामाजिक स्थिति ने विकास की चौपट करने में अहम भूमिका निभाई है। कोई इंसान कितना गरीब है यह उसके निजी आय के साथ इस बात पर भी निर्भर करता है कि सरकार ने उसके आसपास सुविधाओं को लेकर क्या इंतजाम किए हैं और आय के कितने साधन उपलब्ध करवाए हैं। भारत के इन आठ राज्यों पर नजर डाली जाए तो एक बात तो साफ है कि सरकार विकास को लेकर जिस तरह से उदासीन रही है उससे यही अंदाजा लगाया जा सकता है कि भूख और बेकारी को लेकर नजरिया कुछ और ही है। सरकार की नजर में गरीबी कोई गंभीर चिंतनीय विषय नहीं है। एजुकेशन, स्वास्थ्य, आवास, पोषण, संसाधन और बुनियादी सुविधाएं सेकेंडरी चीजें हैं। जिंदगी जीने का जो ट्रेंड इन राज्यों में पहले से चला आ रहा है उसमें सुधार की कोई जरूरत सरकार को नजर नहीं आती। वैसे देखा जाए तो साउथ एशिया में ५१ फीसदी लोग गरीब हैं, जबकि २८ फीसदी लोग अफ्रीका में गरीब हैं। इन आंकड़ों की बाजीगरी पर नजर डाले तो एक बात तो साफ है कि भारत में गरीबी की जो तस्वीर है वो उतनी भयानक नहीं है। हां भूख जरूर है, बच्चों में कुपोषण का आंकड़ा करीब पचास फीसदी है। इस पर कैसे काबू पाया जा सकता है ये बहुत बड़ी समस्या है। इसका समाधान खोजा जाना चाहिए। भारत आर्थिक तौर पर बहुत तेजी से विकास कर रहा है, लेकिन भूख को मिटाने में कितना कामयाब हो पाया है इस पर तस्वीर साफ नहीं हो पाई है। संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले दो सालों में साउथ एशिया में भूख को कम करने में कोई सफलता नहीं मिली है। भारत में आज भी भूख से मौतें हो रही हैं। कुपोषण की समस्या बनी हुई है। ऐेसे में ये बहुत बड़ा सवाल है कि आर्थिक विकास और गरीबी में क्या रिश्ता है। बात वहीं आकर रुकती है कि आखिर आर्थिक विकास हो रहा है तो कहां हो रहा है। जाहिर सी बात है ये बात शहरों से निकली है और शहरों में ही जाकर खत्म हो जाती है। चाहे एजुकेशन हो, हेल्थ हो या फिर रोजगार के अवसर, सारी सुविधाएं सिर्फ और सिर्फ शहरों में ही विकसित हो रही हैं। अब ये सारी सुविधाएं कब तक गांवों में पहुंचेंगी, फिलहाल ये कोई नहीं जानता, सरकार भी नहीं.....

NAIEM