Wednesday, December 29, 2010

उकाब और अबाबील

एक अबाबील और एक उकाब (गरुड़) पहाड़ी चोटी पर मिले | अबाबील ने कहा, "आपका दिन शुभ
हो, श्रीमान !" और उकाब ने उसकी ओर हिकारत भरी नजरों से देखा और धीमे से कहा, "दिन
शुभ हो |"

और अबाबील ने कहा, "मुझे आशा है कि आपकी जिंदगी में सब ठीक चल रहा
है |"

"हाँ" उकाब ने जवाब दिया "हमारे साथ सब सही चल रहा है | लेकिन क्या
तुम जानते नहीं कि हम चिड़ियों के राजा हैं, और तुम्हें तक तक हमसे मुखातिब नहीं
होना चाहिए जब तक हम खुद तुम्हें इजाज़त न दें ?"

अबाबील ने कहा, "मेरे
ख़याल से हम सब एक ही परिवार से हैं |"

उकाब ने नफरत से उसे देखा और कहा,
"ये तुमसे किसने कहा कि हम और तुम एक ही परिवार से हैं ?"

तभी अबाबील ने
जवाब दिया, "और मैं आपको बता दूँ, कि मैं आपसे कहीं अधिक ऊंचा उड़ सकता हूँ, मैं गा
सकता हूँ तथा दुनिया के बाकी प्राणियों को ख़ुशी दे सकता हूँ | और आप न तो सुकून
देते हैं , न ख़ुशी |"

उकाब को गुस्सा आ गया, और उसने कहा, "सुकून और ख़ुशी
! क्षुद्र अहंकारी जीव | अपनी चोंच के एक हमले से मैं तुम्हारा नामोनिशान मिटा सकता
हूँ | आकार में मेरे पंजों के बराबर भी नहीं हो तुम |"

यह सुनते ही अबाबील
उड़ कर उकाब की पीठ पर बैठ गया | और उसके पंख नोचने लगा | उकाब अब परेशान हो गया
था, और तेज़ी से ऊंची उड़ान भरने लगा ताकि अपनी पीठ पर बैठे अबाबील से छुटकारा पा
सके | लेकिन उसे कोई सफलता नहीं मिली | आख़िरकार, हारकर वह उसी पहाड़ी चोटी की
चट्टान पर गिरकर अपने भाग्य को कोसने लगा | 'क्षुद्र जीव' अभी भी उसकी पीठ पर सवार
था |

उसी समय वहाँ से एक छोटा कछुआ गुजरा, ये दृश्य देखकर वह जोर से हँसा,
और इतनी जोर से हँसा कि दोहरा होकर पीठ के बल गिरते गिरते बचा |

उकाब ने
कछुए की तरफ नीचे देखा और कहा, "जमीन पर रेंग के चलने वाले, तुम्हें किस बात पर
इतनी हँसी आ रही है ?"

और तब कछुए ने जवाब दिया, "मैं देख रहा हूँ कि तुम
घोड़े बन गए हो , और वो छोटी चिड़िया तुम पर सवारी कर रही है, छोटी चिड़िया तुम
दोनों में बेहतर साबित हो रही है |"

ये सुनकर उकाब ने उससे कहा, "जाओ , जाओ
, अपना काम करो | ये मेरे भाई अबाबील और मेरे बीच की बात है | ये हमारे परिवार का
मामला है |"


NAIEM...

Monday, December 27, 2010

घमुलि दीदी यथ-यथ आ यानी सर्दियों के लिए बच्चों के वास्ते एक कोरस



आजकल
कड़ाके की सर्दी पड़ रही है समूचे उत्तर भारत में. जाहिर है आमतौर पर बातचीत में और
टेलीफ़ोन पर भी लगातार सर्दी के इस रूप को लेकर भी सभी से बातें हो रही हैं.


अभी एकाध दिन पहले पिथौरागढ़ ज़िले के गणाई गंगोली के छोटे से गांव रैंतोली
में अपने बचपन की सर्दियां याद करते हुए ’दावानल’ नामक प्रसिद्ध उपन्यास के रचयिता
और ’हिन्दुस्तान’ अख़बार के उत्तर प्रदेश संस्करणों के सम्पादक श्री नवीन जोशी ने एक
दिलचस्प किस्सा सुनाया.

जाड़ों में पहाड़ों में सदा ही अच्छी ख़ासी ठण्ड पड़ती
है. स्कूलों की छुट्टियां होती हैं और बच्चे खेलने बाहर भी नहीं जा सकते. ऐसे मौसम
में नहाने की बात सोचने से बड़ों की भी घिग्घी बंध जाती है, बच्चों की तो बात ही
क्या. तो बच्चे कई कई दिनों तक नहाने से बचे रहते हैं.

ऐसा ही नवीन दा के
बचपन में भी होता था. कई दिनों तक न नहाए बाखली के सारे आठ-दस बच्चों को एकबट्याया
जाता था और ख़ूब सारा पानी गर्म करने के बाद सामूहिक जबरिया स्नान से उन्हें साफ़
बनाया जाता था. यह काम किसी भी बच्चे की मां या बड़ी बहन या मौसी आदि करते
थे.

बाहर धूप आमतौर पर गा़यब रहा करती थी और आसमान में बादल लगे होते थे. इन
सद्यःस्नात बच्चों को और भी ठण्ड लगती थी. इस के लिए उन्होंने एक शानदार तकनीक ईजाद
की थी. वे उछलते हुए मिलकर एक कोरस गाया करते थे जो सर्दी भगाने का गारन्टीड तरीका
हुआ करता था:

"घमुलि दीदी यथ-यथ आ
बादल भीना पर-पर जा
"


धूप माने घाम को दीदी कह कर अपने पास आने का अग्रह किया जाता था जबकि
बादल को भिना यानी जीजा के नाम से सम्बोधित कर दूर दूर रहने को कहा जाता
था.

NAIEM..

Saturday, December 25, 2010

आप मराठी न जानते हों तो भी गुज़ारिश;इसे सुनें ज़रूर !


मराठी
नाट्य परम्परा में संगीत का एक महत्वपूर्ण क़िरदार रहा है. नाटक के कथानक को आगे
बढ़ाने और मोनोटनी को तोड़ने में नाट्य संगीत कड़ी बनता आया है.
किर्लोस्कर नाट्य
कम्पनी के ज़माने से नाटकों में संगीत का सिलसिला बना और उसे बाद में पं.बाल गंधर्व,
पं.दीनानाथ मंगेशकर और सवाई गंधर्व ने सँवारा और समृध्द किया. नाट्य पदों की
भावभूमि हमेशा से शास्त्रीय संगीत के इर्दगिर्द रची गई और गुणी कलाकारों ने इसे तेज़
तान के साथ टप्पे,ठुमरी और छोटे ख़याल के सारे कलेवरों से सजाया. कालांतर में
पं.भीमसेन जोशी,पं.जितेन्द्र अभिषेकी और पं.वसंतराव देशपाण्डे ने इस क्षेत्र में
बहुत ख्याति अर्जित की.

पं.वंसतराव देशपाण्डे जल्दी ही इस
दुनिया से चले गए. उनके गायन एक अजीब कशिश थी और उनका स्वर-विन्यास हमेशा से श्रोता
को एक अलौकिक आनंद की सैर करवाता था. वे एक बेजोड़ तबला वादक और अभिनेता भी
थे.पु.ल.देशपाण्डे,कुमार गंधर्व और पं.देशपाण्डे में बड़ा ज़बरदस्त याराना था. तीनो
के बीच दो चीज़े कॉमन थीं...रसरंजन और बेग़म अख़्तर. हाँ याद आया इन तीनों के एक और
प्यारे दोस्त थे रामूभैया दाते जिन्हें संगीत संसार रसिकराज के रूप में जानता था.
वे अपने घर कई बड़े बड़े गायकों की महफ़िलें करते और शानदार ख़ातिरदारी भी. बेग़म अख़्तर
इन्दौर आएँ और रामू भैया से न मिले ऐसा हो ही नहीं सकता . रामू भैया के बार में
विस्तार से फ़िर कभी

...फ़िलहाल पं.वसंतराव देशपाण्डे के मदमाते और घुमावदार
स्वर में सुनते हैं यह मराठी नाट्य पद ...घे ई छंद मकरंद....ज़रा देखिये तो क्या
बलखाती तानें हैं और स्वरों की लयकारी....कमाल है.


NAIEM..

Wednesday, December 22, 2010

आइये आलसी बनिये



बहुत
दिन हुए सारे कबाड़ी सोए हुए हैं. स्वास्थ्य कारणों से मैं भी कुछ नहीं कर सका.
बिस्तर पए लेटे लेटे 'Idler' पत्रिका के सम्पादक टॉम हॉजकिन्सन की दूसरी ज़बरदस्त
किताब ’How to be idle' समाप्त की. असल में मैंने तो तय किया है कि अब कुछ दिनों तक
इसी किताब को अपनी बाइबिल मान कर चलूंगा. अलार्म घड़ियों, जल्दी उठने की सलाह देने
वाले हितैषियों, दुनिया में सफल होने के गुर बताने वालों को टैम्प्रेरी गुडबाई कहता
मैं इस किताब से एकाध टुकड़े पेश करता हूं


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हमें कोशिश करनी
चाहिये कि हम हर काम को आलसीपन के साथ करें, सिवा पीने और प्यार करने में, सिवा
आलसी होने में.

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शहरों में रहने वाले सम्भ्रान्त लोगों ने कविता को
बार बार त्यागा है क्योंकि उन्हें लगता है उनाके पास इस तरह की फ़िज़ूल चीज़ों के
वास्ते बर्बाद करने को समय नहीं है. लेकिन एक कविता को थोड़े मिनटों में पढ़ा जा सकता
है और उसके बड़े शानदार प्रभाव होते हैं. सुबह के दस बजे बिस्तर में लेटे आलसी आदमी
के पास ऐसा करने का समय होता है.

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सच्चा आलसी आदमी सिर्फ़ शनिवार को ही
नहीं, हर समय अच्छा जीवन बिताना चाहता है. समय का आनन्द लिया जाना चाहिए बजाय कि आप
हर समय उससे लड़ते रहें



NAIEM...

Monday, December 20, 2010

गुलदस्ता उसके आगे हंस हंस बसन्त लाई



नज़ीर
अकबराबादी साहेब की बसन्त सीरीज़ से पढ़िये एक और बेमिसाल नज़्म

मिलकर सनम से
अपने हंगाम दिलकुशाई
हंसकर कहा ये हमने ए जां! बसन्त आई
सुनते ही उस परी ने
गुल गुल शगुफ़्ता हो कर
पोशाक ज़रफ़िशानी अपनी वोही रंगाई
जब रंग के आई उसकी
पोशाक पुर नज़ाकत
एक पंखुड़ी उठाकर नाज़ुक सी उंगलियों में
रंगत फिर उसकी अपनी
पोशाक से मिलाई
जिस दम किया मुक़ाबिल कसवत से अपने उसको
देखा तो उसकी रंगत उस
पर हुई सवाई
फिर तो बसद मुसर्रत और सौ नज़ाकतों से
नाज़ुक बदन पे अपने पोशाक वह
खपाई
चम्पे का इत्र मल के मोती से फिर खुशी हो
सीमी कलाइयों में डाले कड़े
तिलाई
बन ठन के इस तरह से फिर राह ली चमन की
देखी बहार गुलशन बहरे तरब
फ़िज़ाई
जिस जिस रविश के ऊपर आकर हुआ नुमायां
किस किस रविश से अपनी आनो अदा
दिखाई
क्या क्या बयां हो जैसे चमकी चमन चमन में
वह ज़र्द पोशी उसकी वह तर्ज़े
दिलरुबाई
सदबर्ग ने सिफ़त की नरगिस से बेतअम्मुल
लिखने को वस्फ़ उसका अपनी कलम
उठाई
फिए सहन में चमन के आया बहुस्नो ख़ूबी
और तरफ़ा तर बसन्ती एक अंजुमन
बनाई
उस अन्जुमन में बैठा जब नाज़ो तमकनत से
गुलदस्ता उसके आगे हंस हंस बसन्त
लाई
की मुतरिबों ने ख़ुश ख़ुश आग़ाज़े नग़्मा साज़ी
साक़ी ने जामे ज़र्रीं भर भर के
मै पिलाई

देख उसको और महफ़िल उसकी ’नज़ीर’ हरदम
क्या-क्या बसन्त आकर उस
वक़्त जगमगाई..


NAIEM...

Friday, December 17, 2010

बैठो चमन में नरगिसो सदबर्ग की तरफ़ - नज़ीर अकबराबादी



निकले
हो किस बहार से तुम ज़र्द पोश हो
जिसकी नवेद पहुंची है रंगे बसन्त को
दी बर में अब लिबास बसन्ती को जैसे जा
ऐसे ही तुम हमारे सीने से आ लगो
गर हम नशे
में "बोसा’ कहें दो तो लुत्फ़ से
तुम पास हमारे मुंह को लाके हंस के कहो
"लो"
बैठो चमन में नरगिसो सदबर्ग की तरफ़
नज़्ज़ारा करके ऐशो मुसर्रत की दाद
को
सुनकर बसन्त मुतरिब ज़र्री लिबास से
भर भर के जाम फिर मये गुल रंग के
पियो
कुछ कुमरियों के नग़्मे को दो सामये में राह
कुछ बुलबुलों का ज़मज़मा ए
दिलकुशा सुनो

मतलब है ये नज़ीर का यूं देखकर बसन्त
हो तुम भी शाद दिल को
हमारे भी ख़ुश करो...


NAIEM...